बुधवार, 23 जनवरी 2019

हौज द जोश। जोर से बोलिए, जय हिंद



26 जनवरी आने वाला है। ऐसे में 25 को आ रही फिल्म मणिकर्णिका देखने की तैयारी कर लीजिए। कंगना राणावत का एक नया रूप रानी लक्ष्मीबाई के रूप में नज़र आएगा। लेकिन उससे पहले फ़िल्म उरी को जरूर देख लीजिए। हम लोग एक दूसरे से पूछ सकते हैं-hows the josh. 😊सिनेमा हॉल में आपकी मुठियां भिंच जाएंगी। आप नए जोश से लबरेज हो उठेंगे। भले ही फ़िल्म में कल्पना का पुट हो। लेकिन ये हमें वार यानी योद्धाओं के उस जीवन से रूबरू कराती है, जो सही में सच्चाई है। जहां गोली एक पल में फैसला जगाती है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ लोगों को फ़िल्म नागवार लगे। लेकिन फ़िल्म अलग अहसास करा जाती है।  चुनाव के पहले ऐसी फिल्म को प्रोपेगंडा का हिस्सा बोल सकते हैं। लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक का जो जीवंत वृतांत दिखाया गया है, वह काफी दिलचस्प है। जीत के लिए बेहतर सोच और दिमाग चाहिए। परेशानियों को मात देकर आपको अपनी सर्जिकल स्ट्राइक करनी है। ये फ़िल्म उन लोगों के लिए भी है, जो सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाते रहे हैं। लेकिन इसका एक पार्ट यह भी है कि हम और हमारी सरकार यह न भूले कि चुनौतियों का मंजर खत्म नहीं हुआ है। अब तीन दिन बाद आनेवाली फ़िल्म मणिकर्णिका का इंतज़ार है। कंगना की लाजवाब तलवारबाजी का ट्रेलर देखकर ही रोमांच भर उठा है। आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली लक्ष्मीबाई का दिव्य स्वरूप जागृत हो उठेगा। वैसे उरी फ़िल्म में आप सिनेमा हॉल में आराम से बिना हिले बैठे रहेंगे, ये मेरा दावा है। कहानी सबको मालूम है, सिर्फ उस कहानी के रोमांच को महसूस करना है।

जय जय

रविवार, 21 अक्तूबर 2018

खुद को एलिट क्लास कहने के लिए दूसरों पर कूड़ा मत फेंकिए


हम लोग जब क्षेत्रीय हिंदी पत्रकारिता की बात करते हैं, तो उसे मेरे हिसाब से राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से एकदम अलग देखना होगा। उनकी जरूरतों को ध्यान में रखना होगा। आप सीधे तौर पर हिंदी मीडिया को गलीच या नकारा नहीं कह सकते। वैसे जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है, उसमें मैंने काफी सम्मानित शब्दों का प्रयोग किया है। कृपा करके दिल्ली वाली पत्रकारिता को इससे अलग रखें।

स्वनामधन्य कई बड़े पत्रकार दिल्ली या विदेश में बैठकर हिंदी पत्रकारिता के हालात का अंदाजा लगा लेते हैं और इसे नकारा करार देते हैं। हो सकता है कि हम लोगों की तरह रांची या पटना में बैठा व्यक्ति लंदन या न्यूयार्क के अखबारों के बारे में रत्ती भर भी जानकारी नहीं रखता हो, लेकिन क्या विदेशी मीडिया या दिल्ली में बैठे लोग क्षेत्रीय स्तर पर हो रहे तमाम बदलावों से परिचित हैं। यहां तमाम दिक्कतों और परेशानियों के बावजूद जिस तरह लोग पत्रकारिता कर रहे हैं और उसके बारे में रिपोर्ट कर रहे हैं, उसे आप नजरअंदाज कैसे कर सकते हैं?

व्यावहारिक रूप में यह जरूरी नहीं कि जो क्षेत्रीय स्तर पर पत्रकारिता कर रहा हो, वह साहित्य प्रेमी हो या उसके बारे में वह काफी ज्ञान रखता हो। हो सकता है कि वह कोई व्यवसाय करते हुए लेखन कर रहा हो। आर्थिक परेशानियों के बाद भी अपने पत्रकारिता के जज्बे को जिंदा रख रहा हो।

क्षेत्रीय स्तर पर जो रिपोर्टिंग होती है, उसमें राज्य या क्षेत्र विशेष का ध्यान रखा जाता है। वहीं विदेशी या दिल्ली की इलेक्ट्रानिक मीडिया के तमाम दिग्गज सिर्फ एक पैमाना रखकर ही रिपोर्टिंग करते हैं। इधर के सालों में तो ग्राउंड रिपोर्टिंग का सिलसिला तो और ही कम हुआ है। शीर्ष मीडिया सिर्फ उन्हीं कोनों को छूती है, जहां उसका हित जुड़ा है। अखबार में कम से कम क्षेत्रीय संस्करणों में वहां की समस्याओं को एक पैमाना रखकर प्रकाशित तो किया जाता है।

हिंदी या अंग्रेजी साहित्य से जुड़ी रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां काफी जगह है। तमाम संस्करणों में हो रहे बदलावों के बाद भी इन्हें जगह दी जा रही है। दिक्कत यही है कि जो शीर्ष मीडिया के लोग हैं, उन्हें छोटे स्तर पर हो पत्रकारिता में हो रहे बदलावों को जानने की फुर्सत ही नहीं है। तमाम हिंदी अखबारों को गरियाने वाले शीर्ष अंगरेजी दां या अन्य पत्रकार कभी खुद में भी झांक कर देख सकते हैं कि उनकी ओर से कितना संतुलन कायम रखा जा रहा है। सच्चाई यही है कि क्षेत्रीय समाज और राजनीति की रिपोर्टिंग स्थानीय स्तर पर जरूरी है। लेकिन इसके बहाने दूसरे छोर पर अपने ही साथी को नीच कहना कहां तक उचित है।

विदेशी मीडिया सिर्फ एक सिरे को पकड़ कर रिपोर्ट करता है। उससे आप तमाम हलचलों का अंदाजा नहीं लगा सकेंगे। आपको क्षेत्र स्तर पर हलचल का अंदाजा लगाने के लिए भी उसकी तह में जाना होगा, जो कि सिर्फ क्षेत्रीय पत्रकारिता में ही आप पा सकते हैं। दूसरी बात आप जब हमारे ही स्तर पर हमारी मानसिकता को गाली दे रहे हों, तो वहां पर सहमति या असहमति की गुंजाइश कहां बनती है। इसलिए खुद को एलिट क्लास का साबित करने के लिए दूसरे पर कूड़ा मत फेंकिए। घर आपका ही गंदा होगा।






गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

रिम्स : तिल-तिलकर मर रही जिंदगी, रो रही मानवता


 रांची : जिस रिम्स में लोग जिंदगी की उम्मीद लेकर आते हैं, अगर उसी रिम्स परिसर में कोई व्यक्ति तिल-तिलकर मर रहा हो, तो उससे ज्यादा संवेदना को चोट पहुंचाने वाली बात और कुछ नहीं होगी। रिम्स परिसर इन दिनों लावारिस मरीजों का बसेरा बन चुका है। रैन बसेरा के बगल में हनुमान मंदिर के पास स्थित दुकानों के पास पेड़ तले लेटे हुए दो लावारिस मरीजों को अगर आप देखेंगे, तो आपका मन जार-जार रो पड़ेगा। मुंह पर भिनभिनाती मक्खियां, शरीर पर कीड़ों का बसेरा और दर्द से कराहते मरीजों को देखकर आपको लगेगा कि शायद मानवता मर चुकी है और इसी कारण इन मरीजों की रिम्स जैसे बड़े सरकारी अस्पताल के प्रबंधन को भी खबर नहीं है। जिस संस्थान पर 'जिंदगीÓ देने का दारोमदार है, वही संस्थान इनकी अनदेखी करने पर अमादा है। आसपास के दुकानदार बताते हैं कि दोनों लावारिस मरीज 15 दिनों से पड़े हैं।  दोनों लावारिस मरीजों को आसपास के दुकानदार और लोग ही खाने-पीने के लिए दे देते हैं। उनकी देखरेख की बदौलत ही उनकी जिंदगी चल रही है। पास स्थित एक दुकान संचालक ने बताया कि इस बारे में खुद उनकी ओर से कई संस्थाओं को इस बारे में सूचित किया गया था, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। दोनों लावारिस मरीजों की बदतर हालत देखकर हर कोई तरस खाता है, लेकिन करता कुछ नहीं। लोगों ने रिम्स प्रबंधन से लावारिस मरीजों का इलाज कराने की मांग की।
रिम्स डायरेक्टर डॉ. आरके श्रीवास्तव कहते हैं कि
लावारिस मरीजों के इलाज में सबको सामाजिक जिम्मेवारी निभानी होगी। अगर कोई मरीज को गार्ड या सुपरवाइजर के पास ले आए, तो उनका इलाज कराया जा सकता है। 

गुलाबी पंडाल...

रांची की दुर्गापूजा अदूभुत है। यहां सबकुछ एकदम अलग सा महसूस करेंगे। यह पंडाल बकरी बाजार का है। खुद में गुलाबी रंग समेटे पंडाल सबको आकर्षित कर रहा है। दुर्गाबाड़ी में अलग आनंद है। परंपरा और आधुनिकता का मेल दिखता है यहां की पूजा में। 

हौज द जोश। जोर से बोलिए, जय हिंद

26 जनवरी आने वाला है। ऐसे में 25 को आ रही फिल्म मणिकर्णिका देखने की तैयारी कर लीजिए। कंगना राणावत का एक नया रूप रानी लक्ष्मीबाई के रू...